नारी सशक्तिकरण | एक औरत की कमी तब अखरती है पर कविता
नारी सशक्तिकरण | एक औरत की कमी तब अखरती है पर कविता
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब वो चली जाती है वापस लौट कर नहीं आती
छत पर लगे जाले व आँगन की धूल
हटाने में संकोच आता है
" तुम्हारी ये सफाई " कहने का मौका
नहीं मिल पाता !!
जब वो चली जाती है वापस लौट कर नहीं आती
छत पर लगे जाले व आँगन की धूल
हटाने में संकोच आता है
" तुम्हारी ये सफाई " कहने का मौका
नहीं मिल पाता !!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब कालरों की मैल जुटाने में
पसीना छूट जाता है
चूडियां साथ में नहीं खनकती
उसका "मेहनतकश" होना याद आता है !!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब घर में देर से आने पर
रोटियां ठंडी हो जाती है सब्जियों में
तुम्हारी पसंद का जायका नहीं रहता
और तुमसे यह कहते नही बनता
"मुझे ये पसंद नहीं "!!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब बच्चा रात को ज़ोर से रोता है
आप अनमने से उठ जाते हो
और यह नहीं कह पाते
"कितनी लापरवाह हो तुम"!!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब आप रात में अकेले सोते हैं
करवट बदलते रहते हैं बगल में
पर हाथ धरने पर कुछ नहीं मिलता!!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब त्यौहारों के मौसम में
नयी चीज़ों के लिए कोई नहीं लड़ता
और तुमसे ये कहते नही बनता
"और पैसे नहीं हैं "!!
एक औरत की कमी तब अखरती है
जब आप गम के बोझ तले दबे होते हैं ,
निपट अकेले रोते हैं
और आपके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं होता
आप किसी से कुछ नहीं कह पाते
हाँ, औरत की कमी तब अखरती जरूर है!!
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